आँखों में कुछ बुँदे थे
दिल में कुछ कोहरे
हम यूँ किसी के ख्याल में
पिरोये हुए थे चेहरे ।
हिम शिखरों के बीच
उड़ती उन घटाओं सी
भटक गया है आज मन
जाने क्यों एक नदी सी ?
हलकी एक ठंडी सी
लिए दिल में एहसास
अपने से ही क्यों दगा किया
क्यों किया अपना उपहास।
अनंत सागर के किनारे
आज भी बैठा हूँ
उन यादों की कुसुम सुमनों को
सागर तीर को समर्पित करता हूँ।
Wednesday, December 28, 2011
Tuesday, October 11, 2011
ईश्वर के कृति
संताल की मौखिक साहित्य कहती है कि वो सर्वशक्तिमान ईश्वर कि मैल से बनी है। ईश्वर ने अपने मैल से दो पक्षी बनाया । हंसली हड्डी से मैल निकाल कर इन्होंने दो पक्षी का जोड़ा बनाया, चूँकि हंसली हड्डी से बनी थी इसलिए इनका नाम हांस और हंसली रखा। ईश्वर ने इन दोनों को प्राण दिया और इन दोनों ने दो अंडे दिए जिनमे से दो मानव शिशु का जन्म हुआ । जो संथाल साहित्य में पिल्छु हादाम और पिल्छु बुड्डी कहते है। ईश्वर ने इन दो आदिम मानव स्त्री और पुरुष के लिए कपिल गाय से दूध पिलाने के लिए कहा। ठाकुर और ठाकरान के नाम से जाना जाने वाले परमब्रह्म ने आदिदेव मारांग बुरु (शिव ठाकुर ) और जाहेर एरा (वन देवी ) को इन मानवों की देख भाल के लिए नियुक्त किया। जब ye दोनों शिशु बड़े हुए तो इन्हें लज्जा का अनुभव हुआ और एक दुसरे से मिलने के लिए कतराने लागे । भगवन ने ईद मानव की ये हालत देख उन्हें चिंता हुई । वो परमेश्वर के पास गए और इसकी सुचना दी इसके बाद परमेश्वर ने ठाकरां से कहा वस्त्र देने के लिए। तब माँ परमेस्वरी ने अपना अंचल फाड़ मरंग बुरु को दिया । मरंग बुरु ने इस अंचल के तुकरे kओ दोनों में बाँट दिया। इससे लड़की ने अपना शरीर ढँका और पुरुष के लिए सिर्फ लंगोट तक की ही कपड़े बची।
Thursday, September 22, 2011
दीमक
जब घर बनाया दीमकों ने
कई बारिश ने धो डाला ,
लेकिन कब ताक आखिर ये आंधी
उन्हें उजाड़ते और विलीन करते रहेगी?
वो पत्थर के कीड़े कि तरह हैं
एक बार अगर कहीं लग गयी तो
चट्टान को भी धुल में बदल डालेगी
वह आदि के दीमक हैं
उन्हें जो पैरों तले रखेगा ।
वो उन्हीं पैरो को चीरते हुए
उसकी सारी काया को
खाक में बदल डालेगा वह
ऐसा है
ये अनादि के दीमक ....
कई बारिश ने धो डाला ,
लेकिन कब ताक आखिर ये आंधी
उन्हें उजाड़ते और विलीन करते रहेगी?
वो पत्थर के कीड़े कि तरह हैं
एक बार अगर कहीं लग गयी तो
चट्टान को भी धुल में बदल डालेगी
वह आदि के दीमक हैं
उन्हें जो पैरों तले रखेगा ।
वो उन्हीं पैरो को चीरते हुए
उसकी सारी काया को
खाक में बदल डालेगा वह
ऐसा है
ये अनादि के दीमक ....
Wednesday, September 14, 2011
मेरी अंतिम ज्यूरी
मेरा एन आई दी में आज डिप्लोमा कि ज्यूरी थी । कई सरे फीडबैक मिले ।
१ ये एक अदृश्य जगत का एक झलक दुनिया को दिखायेगा।
२ ये अच्छी बात है जो तुम जैसे नवयुवक गन अपने संस्कृति से जुड़े हुए हैं , और अपने संकृती के जड़ को पकडे हुए हें।
३- मुझे ये फिल्म काफी आदिवासी संस्कृति की और ले गयी।
इनके कई सरे दृश्य काफी interesting हैं ।
ये फिल्म तुम्हारी पूरी प्रोसेस को दिखा रही है।
४ और तुमजो कहना चाह रहे हो आया है।
१ ये एक अदृश्य जगत का एक झलक दुनिया को दिखायेगा।
२ ये अच्छी बात है जो तुम जैसे नवयुवक गन अपने संस्कृति से जुड़े हुए हैं , और अपने संकृती के जड़ को पकडे हुए हें।
३- मुझे ये फिल्म काफी आदिवासी संस्कृति की और ले गयी।
इनके कई सरे दृश्य काफी interesting हैं ।
ये फिल्म तुम्हारी पूरी प्रोसेस को दिखा रही है।
४ और तुमजो कहना चाह रहे हो आया है।
Wednesday, August 31, 2011
३०-०८-2011
कल मेरे पिताजी से बात हुयी । मैंने पूछा अपने किसी खास वजह से फ़ोन किया। उसने कहा तुम्हारा फोन कई दिनों से नहीं आया था इसलिए सोचा तुम्हारा हाल जान लूँ। मुझे काफी अच्छा लगा, ऐसे इस साल से कुछ ज्यादा हो रहा है कि मेरे पिता मेरे बारे में कुछ ज्यादा चिंतित हैं। कहीं मैं बीमार तो नहीं या फिर एन आइ डी में इतना दिन रह कर जॉब मिलेगा की नहीं । बड़ा ही चिंतित हैं। अगले साल से पापा रिटायर होने वालें हैं। ये भी बात हो सकती है कि उनके रहते मुझे कहीं जॉब लग जय तो अछि रहेगी। मैं भी यही चाहता हूँ।
आज Audi में २०१० साल के जुनिओर लोगों का थ्री डी स्क्रीनिंग था । उनके काम देख कर मुझे काफी अच्छा लगा। ये सभी प्रोमो चित्रकथा ११ के लिए बनाये गए थे। अर्जुन गुप्ते के direction में एकच काम किया था।
आज Audi में २०१० साल के जुनिओर लोगों का थ्री डी स्क्रीनिंग था । उनके काम देख कर मुझे काफी अच्छा लगा। ये सभी प्रोमो चित्रकथा ११ के लिए बनाये गए थे। अर्जुन गुप्ते के direction में एकच काम किया था।
Tuesday, August 30, 2011
तारा
भीगी- भीगी नमी- नमी सी हैं रातें
जली- जली बुझी- बुझी सी हैं सांसे
ओश से बिखरे हुए हैं अरमान
धुली -धुली, घुली- घुली सी हैं आसमान
पत्रदल सी शिथिल हैं यादें
अधखिली सी हैं फर्यादें
भीगे हुए तितली सी है ये मन
लताओं के बीच फसी हुई हैं यादें
गंभीर रेगिस्तान सा पड़ा है ये मन
किसी संदूक में पड़ा हो कोई हीरा
टुटा असमान से कोई तारा
दूर कहीं हो अलग जा गिरा ...
जली- जली बुझी- बुझी सी हैं सांसे
ओश से बिखरे हुए हैं अरमान
धुली -धुली, घुली- घुली सी हैं आसमान
पत्रदल सी शिथिल हैं यादें
अधखिली सी हैं फर्यादें
भीगे हुए तितली सी है ये मन
लताओं के बीच फसी हुई हैं यादें
गंभीर रेगिस्तान सा पड़ा है ये मन
किसी संदूक में पड़ा हो कोई हीरा
टुटा असमान से कोई तारा
दूर कहीं हो अलग जा गिरा ...
Friday, August 26, 2011
पथिक
खाली सड़क थी
टहलता एक इन्सान
सुनसान रस्ते में
अपने अतीत से बात करता /में मगन
कुछ फुल रस्ते में बिखरे
कुछ अभी भी डाल में खिले
बारिस के कुछ नमीं अभी भी जमीं से उठे नहीं
बादलों कि हलकी सी छठा आकाश में तैर रही।
तारे छुप छुप देख रहे
सुनी गलियों में किसी कि चप्पल कि आवाज
उत्तर में किसी कि खासने कि आवाज
मौन पथिक चलता जाता है सुनसान रात।
बारिस से झुकी डाली
फूलों में कुछ मकरंद भरी हुई
रात्रि कि मनमोह खामोश निशा का लुफ्त लेते हुए
छांव के नीचे दो मन बैठे हों जैसे ।
कहने के लिए हजारों शब्द हैं
जैसे सागर ले असंख्य ढेव
छुप छुप दिल में उत्तर कर
सब कुछ भीगा जाता है।
इन आँखों में बहुत काजल है
बारिश ने मौसम साफ करने बजाई धुंद कर दिया।
धुंद में किसी का प्रतिबिम्ब है
कुहासे में उसी को पीछा करता
सीढियों में राहगीर चढ़ जाता
जैसे किसी पर्वत कि छोटी हो
नीचे देखता ये दुनिया
दीमक का पूरा टीला हो
ये प्रेम पत्थर का शिला खंड
जीवन मरुभूमि सा वीरान लगता
चल कर जाना आसन नहीं
नीर दूर सुदूर तक नहीं मिलता।
चला पग अपने धुन में
सुबह का रश्मि शीश पर सुशोभित
जब आया चम् चम् करता रवि
नया अंकुर फुट पड़ा क्षितिज गर्भ से।
टहलता एक इन्सान
सुनसान रस्ते में
अपने अतीत से बात करता /में मगन
कुछ फुल रस्ते में बिखरे
कुछ अभी भी डाल में खिले
बारिस के कुछ नमीं अभी भी जमीं से उठे नहीं
बादलों कि हलकी सी छठा आकाश में तैर रही।
तारे छुप छुप देख रहे
सुनी गलियों में किसी कि चप्पल कि आवाज
उत्तर में किसी कि खासने कि आवाज
मौन पथिक चलता जाता है सुनसान रात।
बारिस से झुकी डाली
फूलों में कुछ मकरंद भरी हुई
रात्रि कि मनमोह खामोश निशा का लुफ्त लेते हुए
छांव के नीचे दो मन बैठे हों जैसे ।
कहने के लिए हजारों शब्द हैं
जैसे सागर ले असंख्य ढेव
छुप छुप दिल में उत्तर कर
सब कुछ भीगा जाता है।
इन आँखों में बहुत काजल है
बारिश ने मौसम साफ करने बजाई धुंद कर दिया।
धुंद में किसी का प्रतिबिम्ब है
कुहासे में उसी को पीछा करता
सीढियों में राहगीर चढ़ जाता
जैसे किसी पर्वत कि छोटी हो
नीचे देखता ये दुनिया
दीमक का पूरा टीला हो
ये प्रेम पत्थर का शिला खंड
जीवन मरुभूमि सा वीरान लगता
चल कर जाना आसन नहीं
नीर दूर सुदूर तक नहीं मिलता।
चला पग अपने धुन में
सुबह का रश्मि शीश पर सुशोभित
जब आया चम् चम् करता रवि
नया अंकुर फुट पड़ा क्षितिज गर्भ से।
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