Friday, July 5, 2013

मधुर पल

वो कुछ मधुर पल
जो हम बितातें हैं माँ के संग ,
जिंदगी भर रहती साथ
नहीं उड़ते उसके रंग।

वो मधुर स्मृति
देते नयी चेतना उमंग
वो पयोनिधि नित - नूतन
नित नवीन  निर्झर विहंग।

वो नविन उषा
नित नविन अहला मारसाल
वो नविन छाया
रास्काई जोगाव जिबोन ज़कात।
 
नहीं पड़ते उसपे जंग ।

Tuesday, July 2, 2013

kuch bunden

कुछ बुँदे थे सुरन के पत्तों पर
मैंने  उसे पानी समझा
पर जाने क्यों वक्त के साथ वो हीरे में बदल गये.

लोग आज भी पूछते हैं मुझसे
क्या आज भी वो मोती दिखतें हैं वहां
मैं कहता हूँ आज भी बरसते हैं मोतीयां
पर आज वहां सुरन के पौधा नहीं उगा करते .

जुट के मेरे दो गुडियां थे.
बचपन में उसके साथ खेलना ,
उसे कंघी करना मुझे काफी पसंद था. 
जैसे वो मेरे अपने बच्चे हों .

मेरे घर मिटटी के हैं,
किसी कोने में वह भी पड़े होंगे।
घर छोड़े सदियाँ हो गये।
एक बड़ी बुढ़ी बरगद सी मां लगती है।
जैसे कितने अनुभवों को अपने  झुरियों में लपेटी हो.
मैं लाख कोशिश करता हूँ जानने का
ये धागा सुलझे  नहीं सुलझती।

एक विशाल बाँहों वाला पीपल लगते हैं पिता ,
कितने ही भारों को अपने शाखों में सम्भाले हुए।
और अब तो वक्त ने भी
उसे और कमजोर कर दिया है।

तब मुझे याद  आता है ,
अभी भी मेरे पास दो गुड़ियाँ हैं
जिसे पहले के जैसे ही कंघी करने हैं।