Wednesday, August 31, 2011

३०-०८-2011

कल मेरे पिताजी से बात हुयी । मैंने पूछा अपने किसी खास वजह से फ़ोन किया। उसने कहा तुम्हारा फोन कई दिनों से नहीं आया था इसलिए सोचा तुम्हारा हाल जान लूँ। मुझे काफी अच्छा लगा, ऐसे इस साल से कुछ ज्यादा हो रहा है कि मेरे पिता मेरे बारे में कुछ ज्यादा चिंतित हैं। कहीं मैं बीमार तो नहीं या फिर एन आइ डी में इतना दिन रह कर जॉब मिलेगा की नहीं । बड़ा ही चिंतित हैं। अगले साल से पापा रिटायर होने वालें हैं। ये भी बात हो सकती है कि उनके रहते मुझे कहीं जॉब लग जय तो अछि रहेगी। मैं भी यही चाहता हूँ।
आज Audi में २०१० साल के जुनिओर लोगों का थ्री डी स्क्रीनिंग था । उनके काम देख कर मुझे काफी अच्छा लगा। ये सभी प्रोमो चित्रकथा ११ के लिए बनाये गए थे। अर्जुन गुप्ते के direction में एकच काम किया था।








Tuesday, August 30, 2011

तारा

भीगी- भीगी नमी- नमी सी हैं रातें
जली- जली बुझी- बुझी सी हैं सांसे
ओश से बिखरे हुए हैं अरमान
धुली -धुली, घुली- घुली सी हैं आसमान

पत्रदल सी शिथिल हैं यादें
अधखिली सी हैं फर्यादें
भीगे हुए तितली सी है ये मन
लताओं के बीच फसी हुई हैं यादें

गंभीर रेगिस्तान सा पड़ा है ये मन
किसी संदूक में पड़ा हो कोई हीरा
टुटा असमान से कोई तारा
दूर कहीं हो अलग जा गिरा ...



Friday, August 26, 2011

पथिक

खाली सड़क थी
टहलता एक इन्सान
सुनसान रस्ते में
अपने अतीत से बात करता /में मगन

कुछ फुल रस्ते में बिखरे
कुछ अभी भी डाल में खिले
बारिस के कुछ नमीं अभी भी जमीं से उठे नहीं
बादलों कि हलकी सी छठा आकाश में तैर रही।

तारे छुप छुप देख रहे
सुनी गलियों में किसी कि चप्पल कि आवाज
उत्तर में किसी कि खासने कि आवाज
मौन पथिक चलता जाता है सुनसान रात।

बारिस से झुकी डाली
फूलों में कुछ मकरंद भरी हुई
रात्रि कि मनमोह खामोश निशा का लुफ्त लेते हुए
छांव के नीचे दो मन बैठे हों जैसे ।

कहने के लिए हजारों शब्द हैं
जैसे सागर ले असंख्य ढेव
छुप छुप दिल में उत्तर कर
सब कुछ भीगा जाता है।

इन आँखों में बहुत काजल है
बारिश ने मौसम साफ करने बजाई धुंद कर दिया।
धुंद में किसी का प्रतिबिम्ब है
कुहासे में उसी को पीछा करता

सीढियों में राहगीर चढ़ जाता
जैसे किसी पर्वत कि छोटी हो
नीचे देखता ये दुनिया
दीमक का पूरा टीला हो

ये प्रेम पत्थर का शिला खंड
जीवन मरुभूमि सा वीरान लगता
चल कर जाना आसन नहीं
नीर दूर सुदूर तक नहीं मिलता।

चला पग अपने धुन में
सुबह का रश्मि शीश पर सुशोभित
जब आया चम् चम् करता रवि
नया अंकुर फुट पड़ा क्षितिज गर्भ से।










कुछ बिसरे हुए याद ...

कहानी १९३६ के आस पास कि है। झारखण्ड प्रान्त के धनबाद जिले के अंतर्गत आने वाला नेरु नामक एक संताल आदिवासी गाँव कि बात है। ये कोई काल्पनिक कहानी नहीं है। घटना का यथार्थ चित्रण उस कहानी के पात्र द्वारा कहे गए हैं। घनघोर अँधेरी रात है । नदी के किनारे से सियार और भेड़ियों कि आवाज आ रही है। झींगुर कि आवाज और बांस के पत्ते हिलने कि आवाज । घर का दरवाजा भी कोई खास मजबूत नहीं। गाँव के सबसे अंतिम छोर में, सुनसान जगह में एक मिटटी का घर ।घर में जलाने के लिए दीये नहीं। उस घर में शिर्फ़ कुछ मुर्गियां और कुछ गाय और बकरियां हैं। उस घर के आस -पास कोई अन्य घर नहीं। जंगली जानवर कभी भी आ के इन सभी जानवरों को अपना शिकार बना सकते हैं। हो सकता था इस लड़की को भी। पर पिता ने इतना ही बोल के रखा था । कोई भी दरवाजा खट खटाए खोलना मत। ऐसी घनघोर अँधेरी रात में एक ९ -१० साल कि लड़की अकेली रह रही है। उनके पिता तो हैं लेकिन वो दुसरे गाँव गए हैं और वो अपनी बेटी को बहुत चाहते हैं॥ वो ओझा का काम करतें हैं इसलिए रात बिरात बहुत देर से घर लोटते हैं। लोटते तो हैं मगर वो शराब पि के आते हैं । लड़की अपने पिता के इस हालत के रो पड़ती है। उनकी माँ होती तो ये सब नहीं होता । मन के मरे हुए कई साल गुजर गए , लड़की को अभी भी कोई सूरत याद नहीं पर पिता कहते है वो तेरे जैसे ही थी। लोग उनके पिता को ओझागिरी के काम के बदले कुछ अन्न और मदिरा दे देते थे। उनके पिता का इस तरह रोज देर से घर लोटना आम बात थी और कभी -कभी तो तिन दिन ताक नहीं आते थे। पड़ोसी खाना लाकर उनके बेटी बो देके जाते थे। उनका पिता हमेसा अपनी बेटी को लेकर चिंता में रहता था कि क्या पता मेरे इसतरह रात -बिरात आने से कोई मेरी बेटी को उठा के ले जाई, क्या पता जंगली जानवर खा ले क्या, पता नहीं किसी दिन मैं ही दुनिया से चला जाऊ और इसके बाद इसे देखने वाला कोई न हो। वो अपनी बेटी के बड़े होने का इंतिजार करता है। उसके नजर में एक लड़का है गावं के उस पार । जिस तरह एक डॉक्टर डॉक्टर परिवार से रिश्ते जोड़ने कि बात करती है उसी तरह ये गांव का ओझा भी दुसरे ओझे कि तलास में था और उसी के साथ ये महाशय भी अपनी बेटी कि शादी का बात सोचते रहे।




कई सावन और भादो बीते । कई सोहराई -बाहा पर्व बीत गए। लड़की बड़ी हो गयी । एक बार बड़ी साहस करके मैंने इस पात्र से पूछा था कि क्या तुम्हे बचपन में किसी से प्यार था। उसका एक ही जवाब -हम इतने गरीबी में बड़े हुवे कि ये सब कि और ध्यान जा नहीं पाया। और सच भी था वो कुछ समझ पाती इससे पहले उसके पिता ने एक ओझा युवक से उनका ब्याह कर दिया। पिता ने ज्यादा दूर नहीं भेजा सिर्फ नदी के उस पार ताकि कभी वो बीमार हो तो उसकी बेटी उसे देखने आ सके और कभी उनकी इच्छा हो तो तुरंत जा सके । पिता कि तबियत शराब के वजह से हमेसा ख़राब रहती थी। एक दिन वो चल बसते है।




लड़की जिस गांव में गयी थी उस गांव का नाम बारोमशिया था । उसका पति शोखा के नाम से प्रशिद्ध था। वो बहुत ही हठी और मनमौजी था। वो जानवरों को चराता था । वो अपनी और दूसरों के जानवर भी चारता था। कुछ अन्न और पैसे मिल जाते थे बड़ी मुस्किल से उनके घर चलती थी। उस गांव में एक बहुत ही आमिर गांव का मुखिया वहां राज कटा था। मेरे ख्याल से साल १९६१ कि आस पास कि होगी। भारतवर्ष को आजाद हुए १४ साल ही हुए थे। उस समय तक इन संताल आदिवासियों को भारत में अंग्रेज के सिवा शायद ही कोई जानता हो। जमींदार ही समझते होंगे क्योंकि उन्हें लगान लेने होती थी। इन संतालों को चूस लिया गया था जैसे । सिर्फ खड़े रहने के लिए रीड़ कि सुखी हड्डी पड़ी थी। बाकि बंजर शरीर था। लड़की ने ऐसी हालत में एक बेटा को जन्मा दिया । धीरे धीरे बर्ष बित्ते गए । और दो लड़कियों को उस उव्ती ने जम्मा दिया। वो दूसरों के खेत में धान लगाती थी । कई सेर चावल मिल जाते थे। कुछ पैसे भी। किसी दिन पड़ोसी के घर का एक बच्चे का हैजा के बजह के मौत हो गयी। लोग शोख के उप्पर ऊँगली उठा रहे थे कह रहे थे कि ये ही बच्चे के ऊपर कोई टोना किया होगा । इसने उसके बच्चे को मार डाला। इसे गांव से बहार निकालो । उस गांव का मुखिया भी काफी पियाकड़ था उसने भी ये ही कहा कि इसे यहाँ से निकल दिया जाई। ये शोखा बचपन में उनके माता पिता के मरने के बाद इस गांव में किसी कि यहाँ चरवाहा के काम के लिए आया था। और वो शादी करने के बाद इस गांव का हिस्सा भी हो गया था। उनके मालिक ने उन्हें एक घर के लिए जमीं भी दे रखी थी। लेकिन शायद उसे ये चीज हमेसा खटकती थी कि मैंने इसे ऐसे ही दे डाला इसकी तो कोई हेसीयत ही नहीं। उन्हें ये अच्छी अवसर मिल गया इसे हटाने का ।




जो बच्चे जिस माटी में खेल कूद कर बड़े हो रहे थे वो उनकी नहीं थी वो बस मुसाफिर थे । उनके बड़े लड़के का नाम परमेश्वर था और बड़ी लड़की का नाम मकु तथा मंझली लड़की का नाम याद नहीं। वो गांव के प्रधान या मुखिया के खलिहान के अम्ब्डा उठा कि ले जाते तो कभी कभी महुआ बिन के ले जाते । प्रधान कि महिला बोलती छोर भरे हुए हैं सभी .जैसे माँ चोरवैसे ही बचे भी चोर हैं । पता नहीं भिखारी सब आ जाते हैं कहाँ कहाँ से । बड़ी लड़की पूछती मम्मी से क्या मम्मी हमारा कुछ नहीं हैं। उनकी मम्मी बोलती हमारा भी है बेटी लेकिन तुम्हारा पिता जाना नहीं चाहता वहां । उनका कोई नहीं है न वहां ।। लेकिन आज अपना घर लोट जाने का दिन आ गया था।




माँ बाप ने रात में ही अपना बोरिया और बिस्तर बांध कर अपने पैत्रिक भूमि बाघमारा कि और रवाना हो गए । जाते वक्त बच्चे अपने दोस्त और गांव को बिछुड़ते देख रो रहे थे पार किस्मत को येही मंजूर था। उनलोगों ने नदी पार कर संध्या से पहले पैदल चलते हुए गौण पहुंचा। जहाँ गांव तो अपना था पार जानने वाला बहुत काम थे । सब नए नए चेहरे किसी से बोले भी तो क्या बोले । किसके यहाँ रहे? उनलोगों ने अपने गौत्र में ही किसी के यहाँ रह लिए। दो कमरे का एक माकन बनाये । कुछ जानवर के लिए घर भी बनाये । ऐसे लग रहा था जैसे पुरे परदेसी हों । इनके बच्चे गांव के नए बच्चे से अलग लगते थे .सूखे सूखे । गांव के बच्चे अपने समूह में लेते नहीं थे । कभी कभी कोई बच्चा पत्थर फेंक दे तो झगडा हो जाई। ये तिन बच्चे एक साथ खेलते थे सभी बच्चे इन्हें देखते थे। अगर किसी ने जरा भी इनकी बहन को कुछ कहा तो उनका भाई लड़ पड़ता था। दोनों बहने मम्मी का गुहार लगाती। मम्मी अपने पति के साथ चौका काटने के लिए जाते थे। माँ के आने के बाद दोनों बहने भैया कि बहादुरी के किस्से सुनती और पिता बोलते तुम लोग लड़ रहे हो। जरा भी ढंग से नहीं रह सकते क्या। तुम लोंगो पता होना चाहिए हम अभी भी इतने सशक्त नहीं हुए कि किसी को कुछ बोल पायें। बच्चे इसी तरह कभी मार खा कर कभी गाली खाकर बड़े हुए पर जयादा किसी का प्रतिकार नहीं किये।




दोनों महिला और पुरुष ने मिलकर घर बसाया । यहाँ पर छोटी लड़की का जन्म हुआ । उनका परमेश्वर बड़ा हुवा हल चलने लायक तो पिता ने उन्हें एक बनिया के यहाँ मजदुर बनने के लिए भेज दिया। वो वहीँ अपना युवा और वयस्कता देखा। जो कुभी उस बनिए से मिलता था वो घर भेज देता था। परिवार वालों ने कभी उनकी पढाई के बारे में नहीं सोचा । सब बच्चे ऐसे ही बढते गए। समय के साथ माँ और बाप ने परमेश्वर का विवाह कर दिया .नदी के उसपर मंझली नामक गांव के एक लड़की के साथ वो लड़की उस गांव के संचालक की बेटी थी। वो आते ही पुरे घर को सँभालने लग गयी। और आज तक संभालती है और परमेश्वर घर से बाहर जाने बंद कर दिया। और किसी बात पे बाप और बेटे में झगडा हो गया। पिता झगड़ा करके सशुरल चला हया।


इधर पिता अकेले पद गया अर्थ उपार्जन करने में .१९६६ में बिहार में आकाल पड़ा और ये चला १९८५ ताक । एक तो बारिस का पता नहीं । सबको ये गरीबी का प् ता नहीं चला । पार दुसरे परिवार कि तरह इन परिवार पार भी आकाल का दुर्भाग्य पड़ा । इनके घर में सिर्फ लड़कियां थी । धान के उपार्जन करने के लिए तिन लड़कियां भी पिता को हेल्प करने जाते थे । लेकिन कब ताक पिता का बृद्ध कन्धा इन सारी बोझ को संभल सकता।