Friday, August 26, 2011

पथिक

खाली सड़क थी
टहलता एक इन्सान
सुनसान रस्ते में
अपने अतीत से बात करता /में मगन

कुछ फुल रस्ते में बिखरे
कुछ अभी भी डाल में खिले
बारिस के कुछ नमीं अभी भी जमीं से उठे नहीं
बादलों कि हलकी सी छठा आकाश में तैर रही।

तारे छुप छुप देख रहे
सुनी गलियों में किसी कि चप्पल कि आवाज
उत्तर में किसी कि खासने कि आवाज
मौन पथिक चलता जाता है सुनसान रात।

बारिस से झुकी डाली
फूलों में कुछ मकरंद भरी हुई
रात्रि कि मनमोह खामोश निशा का लुफ्त लेते हुए
छांव के नीचे दो मन बैठे हों जैसे ।

कहने के लिए हजारों शब्द हैं
जैसे सागर ले असंख्य ढेव
छुप छुप दिल में उत्तर कर
सब कुछ भीगा जाता है।

इन आँखों में बहुत काजल है
बारिश ने मौसम साफ करने बजाई धुंद कर दिया।
धुंद में किसी का प्रतिबिम्ब है
कुहासे में उसी को पीछा करता

सीढियों में राहगीर चढ़ जाता
जैसे किसी पर्वत कि छोटी हो
नीचे देखता ये दुनिया
दीमक का पूरा टीला हो

ये प्रेम पत्थर का शिला खंड
जीवन मरुभूमि सा वीरान लगता
चल कर जाना आसन नहीं
नीर दूर सुदूर तक नहीं मिलता।

चला पग अपने धुन में
सुबह का रश्मि शीश पर सुशोभित
जब आया चम् चम् करता रवि
नया अंकुर फुट पड़ा क्षितिज गर्भ से।










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