कुछ बुँदे थे सुरन के पत्तों पर
मैंने उसे पानी समझा
पर जाने क्यों वक्त के साथ वो हीरे में बदल गये.
लोग आज भी पूछते हैं मुझसे
क्या आज भी वो मोती दिखतें हैं वहां
मैं कहता हूँ आज भी बरसते हैं मोतीयां
पर आज वहां सुरन के पौधा नहीं उगा करते .
जुट के मेरे दो गुडियां थे.
बचपन में उसके साथ खेलना ,
उसे कंघी करना मुझे काफी पसंद था.
जैसे वो मेरे अपने बच्चे हों .
मेरे घर मिटटी के हैं,
किसी कोने में वह भी पड़े होंगे।
घर छोड़े सदियाँ हो गये।
एक बड़ी बुढ़ी बरगद सी मां लगती है।
जैसे कितने अनुभवों को अपने झुरियों में लपेटी हो.
मैं लाख कोशिश करता हूँ जानने का
ये धागा सुलझे नहीं सुलझती।
एक विशाल बाँहों वाला पीपल लगते हैं पिता ,
कितने ही भारों को अपने शाखों में सम्भाले हुए।
और अब तो वक्त ने भी
उसे और कमजोर कर दिया है।
तब मुझे याद आता है ,
अभी भी मेरे पास दो गुड़ियाँ हैं
जिसे पहले के जैसे ही कंघी करने हैं।
मैंने उसे पानी समझा
पर जाने क्यों वक्त के साथ वो हीरे में बदल गये.
लोग आज भी पूछते हैं मुझसे
क्या आज भी वो मोती दिखतें हैं वहां
मैं कहता हूँ आज भी बरसते हैं मोतीयां
पर आज वहां सुरन के पौधा नहीं उगा करते .
जुट के मेरे दो गुडियां थे.
बचपन में उसके साथ खेलना ,
उसे कंघी करना मुझे काफी पसंद था.
जैसे वो मेरे अपने बच्चे हों .
मेरे घर मिटटी के हैं,
किसी कोने में वह भी पड़े होंगे।
घर छोड़े सदियाँ हो गये।
एक बड़ी बुढ़ी बरगद सी मां लगती है।
जैसे कितने अनुभवों को अपने झुरियों में लपेटी हो.
मैं लाख कोशिश करता हूँ जानने का
ये धागा सुलझे नहीं सुलझती।
एक विशाल बाँहों वाला पीपल लगते हैं पिता ,
कितने ही भारों को अपने शाखों में सम्भाले हुए।
और अब तो वक्त ने भी
उसे और कमजोर कर दिया है।
तब मुझे याद आता है ,
अभी भी मेरे पास दो गुड़ियाँ हैं
जिसे पहले के जैसे ही कंघी करने हैं।
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